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Thursday, June 23, 2011

लघुकथा : फाँसी की सजा

एक बहुत ही सम्पन्न तथा धन-धान्य से परिपूर्ण राज्य था। बाहरी लोगोँ ने राज्य को लूट-खसोट कर खोखला कर दिया। वर्तमान राजा सीधा साधा तथा भोला आदमी था। इसका फायदा उठाते हुये बेईमान दरबारियोँ तथा उच्च पदोँ पर बैठे लोगोँ ने राज्य को लूटकर अपना खजाना भरना प्रारम्भ कर दिया। जनता ने इसके खिलाफ आन्दोलन किया मगर राजा के सैनिकोँ द्वारा इसे कुचल दिया गया।
मगर कुछ ही दिनोँ बाद राज्य मेँ फैली दुर्व्यवस्था से तंग आकर जनता ने फिर एक बार राजा के खिलाफ आन्दोलन किया। इस बार जनता ने पिछली गलतियोँ से सबक लेते हुये संगठित होकर बड़े पैमाने पर आन्दोलन किया था।
फलस्वरुप राजा और उसके भ्रष्ट तंत्र को उखाड़ फेका गया। नये राजा ने सारे भ्रष्ट दरबारियोँ और लूटखोरोँ को जेल मेँ डाल दिया। उन पर मुकदमा चलाया गया तथा सबको फाँसी की सजा दी गयी।
इन लोगोँ ने नये राजा के समक्ष फाँसी की सजा को माफ करने की दया याचिका लेकर फरियाद की। नये राजा ने अपना निर्णय सुनाया, " इन सभी को राज्य की सीमाओँ की रक्षा कर रहे हमारे जवानोँ के साथ सिर्फ एक रात बिताते हुये यह देखना होगा कि जिस राज्य को ये लूट रहे थे उसकी रक्षा कितनी कठिनाईयोँ से की जाती है । अगली सुबह जो भी जिन्दा बच गया उसकी सजा माफ। "
राजाज्ञानुसार सभी लोगोँ तपते रेगिस्तानोँ, दुर्गम पहाड़ियोँ व ग्लेशियरोँ के बीच रह रहे जवानोँ के साथ छोड़ दिया गया। अगली सुबह एक भी आदमी ऐसा नहीँ मिला जिसकी सजा माफ हो सके। कोई लू से, कोई ठण्ड से , कोई भूख प्यास से तो कोई हार्टअटैक से मर चुका था।