
एक कवि की शादी और कविता नहीं । तो सबके बहुत कहने पर मैंने अपनी शादी के लिए जो १८ जून
१९९९ को थी, ये कविता उस समय लिखी थी जो सब घरातियों और बारातियों को उपहार स्वरुप एक कार्ड पर छपवाकर दी गई। आज ११ साल बाद पुराने कागजों के बीच ये कार्ड मुझसे फिर उलझ गया और मेरे दिमाग में ये फितूर समां गया की इसे ब्लॉग पर डाल दूं । तो आप लोग गुस्ताखी माफ़ करियेगा और इसलिए भी की कविता और वो भी अपने ऊपर और अपनी ही शादी पर थोड़ा मुश्किल है
ना ....................है आज भला क्या बात नई क्यों हँसते चाँद सितारे है
क्यों
रंग है फूलों पर छाया क्यों करते आज इशारे है
क्यों आज हवा भी नाच रही क्यों महक महक कर चलती
है
क्या इसने कुछ पी रखी है जो बहक बहक कर चलती है॥
उपेन्द्र के शोभित मस्तक पर सेहरा कुछ ऐसा दमका है
जैसे बदल के घूँघट से कोई चाँद ख़ुशी का चमका है
सेहरे ने इसके मुखड़े को कुछ नूर में ऐसा घेरा है
फिर बिन्दू ने अपना
सेहरे की तरफ मुंह फेरा है।।
सेहरे के अंदर गुंथे हुए कुछ फर्ज भी है अरमान भी है
सेहरे के महकते फूलों में इन दोनों
के लिए वरदान भी है
इक
गृहस्थ जीवन का राजा है एक गृहस्थ जीवन की रानी है
दोनों को आपस में मिलकर एक प्रेम की ज्योति जलानी है ॥
पिता सदाफल चाचा रामप्यारे ,रामदुलारे ऐसे आते हैं
रामश्रृंगार और रामाश्रय अपना शुभ स्नेह लुटाते है
राजेंद्र महेंद्र विकाश देवेन्द्र सोनू ज्ञानू बिट्टू छोटू फूले नहीं समाते है
भाई के सिर पर सेहरा देखकर खुशियाँ खूब मानते है ॥
इस परम सुहानी बेला में शुचि- शुभ्र ह्र्दय मिल रहें है आज
भव-सागर नैया खेने को दो प्राणी उत्तर रहें है आज
सब लोग भी उनको आशीष दे रहे है मनमानी
उन्नति पथ पर ये चले सदा और कीर्ति बड़े आसमानी॥