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Friday, January 21, 2011

बुलंद हौसले का दूसरा नाम : आभा खेत्रपाल



आभा खेत्रपाल
                   कहते है " उम्मीद कभी ख़त्म नहीं होती , अगर दिल में  लगन और चाहत  हो ",  इसे  चरित्तार्थ किया है दिल्ली की रहने वाली आभा खेत्रपाल जी ने  । १८ जून १९६८ को अम्बाला में जन्मीं आभा खेत्रपाल आज किसी परिचय की मोहताज नहीं । जिन कठिन परिस्थितियों में उन्होंने अपनी जिंदगी के बरस  गिने है वह किसी साधारण व्यक्ति के बस की शायद बात नहीं। सिर्फ ३ साल की उम्र में पोलियो से ग्रस्त होने के बाद उनका शेष जीवन कठिनाईयों से भरा रहा है  , मगर उहोंने कभी भी हार मानना नहीं सीखा।
 
                 जिस उम्र में बच्चे  सपनों की दुनिया  पर फैलाना सीखते है  वह उम्र इनके लिये एक अभिशाप की तरह आई थी। अन्य बच्चों की तरह अब वह न तो खेल- कूद सकती थी और न ही स्कूल जा सकती थी।

                मगर कुछ कर गुजरने की ललक उन्हें हार मानकर  एक अभिशप्त  जीवन  जीने  को मजबूर  नहीं कर  सकी । शिक्षक  माता  पिता  से उन्हें भरपूर सहयोग मिला और उन्होंने घर पर ही अपनी शिक्षा शुरू की । उनकी पढ़ाई के प्रति मेहनत और लगन का ही नतीजा  था कि उनको  ९ वीं कक्षा में आखिरकार राजौरी गार्डेन के कैम्ब्रिज  फाउन्डेशन  स्कूल में दाखिला मिल गया, जहाँ से उन्होंने १२ वीं तक की शिक्षा ग्रहण की।

(वेब साईट  पर जाने के लिये कृपया इस फोटो पर क्लीक करें )

              इसके बाद आभा जी यहीं नहीं रुकी और दिल्ली विश्वविद्यालय से  स्नातक  करने के बाद पंजाब  विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर, अन्नामलाई  विश्वविद्यालय से  अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर , मुम्बई से ' साईको  थिरेपी और काऊंसिलिंग ' में एम. एस. सी.  और फिर कम्प्युटर सॉफ्टवेर अप्लिकेशन  में स्नातकोत्तर  डिप्लोमा किया।

             कठिन परिस्थितियों में  स्वाध्याय, मेहनत और लगन से प्राप्त  की गयी इस शिक्षा को उन्होंने सिर्फ अपने तक ही सीमित नहीं रखा है ।  आज वह दिल्ली के सुभाष नगर में क्रास द हर्डल नामक एक संगठन के माध्यम से निशक्त और विकलांग लोंगों के लिये एक उम्मीद की किरण बनीं हुई है । इस क्रास द हर्डल  संगठन की एक वेब साईट  भी है जिसके माध्यम से आभा जी ऐसे बच्चों की मुफ्त आन लाइन कैरियर काऊंसिलिंग भी  करती है ।  इसके अलावा वह ऐसे विद्यार्थियों को घर  पर ही ट्यूशन भी  पढ़ाती है. इस वेब साईट पर हर तरह की डिसेबिलिटी के बारे में विस्तृत जानकारी तथा उससे  सरवाईव  करने के लिये हर तरह की  प्रेरणा , साधन और  निर्देशन मौजूद है ।  इस बारे में और अधिक जानकारी वेब साईट  क्रास द हर्डल  पर उपलब्ध है ।  आज वह अपने इस परोपकारी कार्य के सहारे कितने ही  बेसहारा  और निशक्त लोंगों को आत्म निर्भर बनाकर एक सामान्य जीवन  जीने की प्रेरणा दे रही है।  क्रास द हर्डल के बारे में फेसबुक पर भी जानकारी उपलब्ध  है जहा इसमें करीब ५०० लोग पहले से ही जुड़े हुए है।

( आभा जी अपने माता पिता के साथ  )

                  आभा जी इन  सबसे अलग  एक नामी कवित्री भी  है । इन्होंने आर्कुट पर सृजन का सहयोग नाम से एक कम्युनिटी बनाई है , जिससे  कई नामी साहित्यकार भी जुड़े है । आज इस  कम्युनिटी के सदस्यों की संख्या  ५५०  के करीब है. इस पर समय - समय पर कई प्रतियोगिताएं भी आयोजित होती है और नये लेखकों का उत्साहवर्धन भी किया जाता है । नीचे उनकी ही लिखी एक कविता प्रस्तुत है...............

चलते - चलते
चलते - चलते 
मिली सुगंध 
समेटना चाहा मैंने 
बोली......
" रानी हूँ श्रृंगार की
 वीभत्स में समाऊँ कैसे ?"
चलते- चलते 
मिली ठंडक 
शीतल होना चाहा  मैंने 
बोली.........
"सुखों के हिम पर वास  करती हूँ
तपती- जलती रेत पर छाऊँ कैसे ?"
चलते -चलते 
मिली मिठास
चखना चाहा  मैंने 
बोली............
"जिंदगी बदमिजाज है तुम्हारी
कड़वाहट अपनाऊ कैसे ?"
आगे थी रौशनी
पास में थी शांति
कुछ न कह पाई उससे
बस , नजरें झुकाए
फिर से 
ठुकराए जाने का डर लिये
लौट आयी घर को मै ....

                            (आभा खेत्रपाल)

कुछ महत्वपूर्ण लिंक :
Interview of Abha Khetarpal by Jagran Group
Interview of Abha Khetarpal by Salaam Namaste 90.4 FM 
Interview with CNEB News Channel 
Massage on Polio day 
On hindustan Times  
On The New Observer Post

Friday, January 14, 2011

नये दशक का नया भारत ( भाग- २ ) : गरीबी कैसे मिटे ?

विकसित राष्ट्र कि तरफ कदम बढ़ाते सदी के इस दूसरे दशक में कैसा हो नया भारत ? इस रास्ते में रोड़ा बनी समस्याएं कैसे दूर हो ? आज हर भारतीय के मन में एक विकसित  भारत का सपना तैर रहा है . परन्तु राष्ट्र  के सम्मुख अनेकों समस्याएं इस रस्ते की रूकावट बनी खड़ी है. " नये दशक का नया भारत " नामक श्रृंखला  के माध्यम से मैंने कुछ कोशिश की है. आपका सुझाव और मार्गदर्शन की जरूरत है..... 
 भाग- २  : कैसे मिटे गरीबी  ?
  जरा देखिये , भारत देश की एक तस्बीर,  जहाँ मुकेश अम्बानी जैसे कई लोग  करोडो डालर की लागत से बने अपने आलीशान घरों में रहते  है  तो  वहीं लाखों लोंगों को छत भी नसीब नहीं और कितनों तो खुले आसमां के नीचे रहने को मजबूर है. फ़ोर्ब्स मैगजीन तो इन लोंगों की गिनती तो बड़े शौक से करती है मगर दूसरे  लोग उसके हिसाब से  गायब है. और दूसरी तस्वीर देखिये , जहाँ देश के   गोदामों   में हजारोंन खाद्यान्य  सड़  गये वहीं दूसरी तरफ लाखों लोगों को ढंग से दो जून की रोटी भी नसीब नहीं और कितने तो भुखमरी की कगार पर है.
 
गरीबी मिटाने के कुछ कारगर उपाय त करने ही चाहिए जैसे की :-
* देश की पूरी अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है और सरकारी अनदेखी का आलम ये कि किसान सही मूल्य न मिल पाने से फसलों का खेतों में ही जलना बेहतर समझ रहे है. किसान आज मजदूर बनाने पर विवश हो रहा है. अतः कृषि को एक उद्योग के रूप में विकसित किया जाना चाहिए.
 
* रोजगार के नये अवसर को तलाशने के साथ छोटे- छोटे  ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए.  इन उद्योगों से बने उत्पादों  को सही मूल्य मिल सके इसके लिये बाज़ार भी खोजा जाना चाहिए. इसके अलावा इन उद्योगों को कच्चा मॉल भरपूर  मिल सके इसकी गारंटी सरकारी स्तर पर बनी योजनाओं में अवश्य  होनी चाहिए.

* अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए न की कुछ बड़ी कंपनियों खाकर कुछ परिवारों का अधिपत्य हो. बड़ी मछलियों का छोटी -छोटी मछलियों को खाना बंद होना चाहिए, इसके लिये  देश  में ऐसा  वातावरण  विकसित हो जिसमें  छोटी  कंपनियों  को भी  उभरने  का मौका  मिले  और विकास  एक संतुलित  और टिकाऊ  हो.

*उर्जा किसी भी देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है. बिजली चोरी को रोकने के साथ साथ  उर्जा के कुछ  वैकल्पित उपायों पर जोर देना चाहिए.  

 * विकास को बिजली, पानी, खाद्यान्य, सड़क  इत्यादि  जैसी कुछ मूलभूत सुविधाओं की नज़र से देखना चाहिए. हर हाथ में मोबाईल होने,  कार होने या कुछ बड़ी इमारतों का निर्माण कर देने भर से ही विकसित होने का भ्रम नहीं पालना चाहिए. नागरिकों के लिये जबतक मूलभूत सुविधाओं का ढांचा नहीं तैयार होता तबतक सारा विकास व्यर्थ है.

*शिक्षा को रोजगार परक बनाने के लिये से व्यवसायोंमुखी  बनाना अति आवश्यक है. हाथ में सिर्फ डिग्री थमाकर बेरोजगारी के दलदल में ढकेलने वाली शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन करने जरूरी है.

* देश का समग्र  विकास  आवश्यक है . दो चार और टाटा , बिरला अम्बानी देश में बन जाये तो एक अरब  लोगों की सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है और वो ना ही विकसित नहीं बन जायेगे. सरकार को ऐसी योजनायें बनानी चाहिए किस्में सभी लोंगों को विकास का भरपूर मौका  मिले.


* गरीबी उन्मूलन में लगी संस्थाओं को सिर्फ रेवड़ी की तरह पैसे  बाँट देने से ही सरकार के  कर्तव्यों की इतिश्री नहीं  हो जाती. ये पैसे गरीबों तक पहुँचाना चाहिए न कि विचौलियों के माध्यम से वापस जेबों में या फिर स्विस बैंक में. ये सरकार की जबाबदेही  बनती है की एक-एक पैसे सही जगह खर्च हो और इसके लिये ऐसा तंत्र विकसित हो. 
* और अंत में मेरे हिसाब से इन सबसे  जरूरी एक बात कि गरीबी उन्मूलन के लिये बनी सारी योजनायें पारदर्शी , जबाबदेह और सक्षम होनी चाहिए . इनमें से भ्रष्टाचार  पूरी तरह मिटना चाहिए और अफसरों  व  कर्मचारियों में पूरी  ईमानदारी अपने काम के प्रति आनी चाहिए . दूसरे,  स्विस बैंक का सारा पैसा अगर  ईमानदारी से वापस  आ जाये तो हम शायद दुनिया में एक विकसित राष्ट्र बन जाते. ऐसे में बाबा रामदेव जी का नारा सही लगता है कि स्विस  बैंक से सारा पैसा वापस लाना  चाहिए.

पहला भाग  पढ़ने के  लिये कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 

 नये दशक का नया भारत ( भाग १ )  : कैसे दूर हो बेरोजगारी ?

इस श्रृंखला की अगली कड़ी  " नये दशक का नया भारत ( भाग- 3  ) : कैसे हो गाँवों का विकास ? " में आप सबके विचार और सुझाव आमंत्रित है ,  जो आप मुझे - मेल  ( upen1100@yahoo.com ) से भेजने का कष्ट करे , जिन्हें आपके नाम के साथ इस अगली पोस्ट में उद्धरित किया जायेगा. इस पोस्ट में रह गयी कमियों से भी कृपया अवगत करने का कष्ट करे ताकि अगली कड़ी को और अच्छा बनाया जा सके.
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अब आईये देखते है ई मेल से आये कुछ सुझाव . मो सम कौन ? वाले संजय जी कहते है, सिर्फ किताबी ज्ञान देने से बेहतर है की वोकेशनल ट्रेनिंग देकर कुटीर उद्योगों की तरफ जनता का रूझान बढाया जाय. विवाह मृत्यु और दुसरे पारिवारिक सामाजिक  और धार्मिक संस्कारों  में फिजूलखर्ची रोकना चाहिए और हो सके तो इसके लिये कानून भी बने. स्वास्थ्य के क्षेत्र में कैशलेस कार्ड जारी करके अल्प बचत वर्ग की जनता को अपनी आय का एक बड़ा मद बचाने में मदद मिल सकती है .  गरीबी ख़त्म करने के लिये तो सबसे ज्यादा गरीबों को ही कोशिस करनी होगी. सब्सिडी खैरात जैसी चीज कोई छोड़ना नहीं चाहता और राजनितिक दल इसको नोट के जरिये वोट के रूप में उठाते है. और इससे से भी बड़ा सच ये है की कुछ जुगाड़ू टाईप  के ही लोग इस सुबिधाओं को उठा रहे है. एक तरफ जिनके बैंक खाते लाखों रुपये से भरे है वो भी २०० रूपये की बृद्धा पेंशन उठा रहे है  जो की सिर्फ असमर्थ लोगों को जारी की जाती है. इसके पीछे मानसिकता ये रहती है अगर सरकार कुछ दे रही है तो क्यों का कुछ फायदा उठा लिया जाय.
            संजय जी आगे लिखते है कि आम आदमी सौ रुपये खर्च करने से पहले दस बार सोंचता है कि इससे परिवार या बच्चों कि कोई जरुरत तो नहीं प्रभावित नहीं हो रही वही गरीब आदमी शाम को अद्धा सेवन में खर्च कर देता है. यह तुलना सार्वभौमिक नहीं तो अपवाद भी नहीं है . एक बहुत बड़ा फर्क अपनी वित्तीय प्राथमिकताये  भी तय करने का है. किस मद पर कितना खर्च करना चाहिए ये जीवन  स्तर को बहुत प्रभावित करता है. ऐश और शो -आफ पर  खर्च किया हुआ पैसा व्यर्थ चला जाता है जब कि यही पैसा बच्चों कि पढ़ाई के लिये दीर्घकालिक निवेश बन सकता है. 
पी से गोदियाल साहब कहते है कि जबतक इस देश कि राजनीति में मूलभूत परिवर्तन नहीं लाये जाते इस देश से गरीबी दूर नहीं कि जा सकती. सिर्फ सिद्धांतों  और कागजी प्रयासों से कुछ भी नहीं हो सकता. इसकी वजह है यहाँ के लोंगों कि मानसिकता जिसे बदल पाना आसान नहीं. हम आदिवासियों की गरीबी का रोना रोते है मगर कभी क्या ईमानदारी से सोंचतें है कि ये आदिवासी अपनी उत्थान के लिये कैसे तैयार होंगे  ? नक्सली रेल पटरिया,  स्कूलों सरकारी भवनों और अस्पतालों को क्यों उड़ाते है ? सीधा सा जबाब है कि इससे आदिवासियों का उत्थान न हो. 
          गोदियाल साहब आगे लिखते है कि अभी कुछ ही महीने पहले आई. पी. एल. में इतना बड़ा घोटाला उजागर हुआ था और यहाँ तक कहा गया कि इसके सारे मैच फिक्स होते है मगर फिर भी अगले आई. पी .एल. के लिये अभी  हाल में जोर -शोर से मंडी सजी. वजह ये भ्रष्टाचार कि बातें हम हिन्दुस्तानियों के लिये ज्यादा मायने नहीं रखती. गुलामी भ्रष्टाचार  और गद्दारी  का विषारू  हमारे  अन्दर इतना गहरे बैठ चुका है कि शायद सारे प्रयासों के बाद भी अगले सौ साल तक भी न भागे.  असमानता का एक उदहारण मै और दूंगा, सभी जानते है कि समाज में मौजूदा भेदभाव और असमानता को दूर करने के लिये हमारे तथाकथिक कुछ समाजवादी और निम्न तबके के नेता लोग सत्ता में दाखिल हुए और आज खुद चोरी- चपारी  करके धनवान बन गये और चाहते है कोई आम आदमी  उन रास्तों पर न चले और बात असमानता दूर करने कि करते है. अगर हमें वाकई गरीबी दूर करनी  है तो सबसे पहले गन्दी राजनीति का खात्मा जरुरी है . ५० से ७० की उम्र तक ये नेता देश को खा रहे है और अगले १० साल तक और खायेंगे और फिर इनके बाद इनकी औलादें खाएगी. सांप का बच्चा तो सांप ही होता तो अगले एक सदी तक आप आमूल चूल परिवर्तन कि उम्मीद कैसे कर सकते है. ? 
आर्कुट मित्र अनिल  जी कहते है , लगता नहीं की हम आजाद है. ये कैसी आजादी की दो पल रोटी के लिये भी कितने लोग तरस रहे हो. झुग्गी झोपड़ियों में कितने लोग रह रहे. रोटी कपडा और मकान तीनों चीज सही से नहीं मिल पा रही. क्या इसी आजादी का सपना देख हमारे क्रांतिकारियों ने देश की आजादी लड़ी थी ?

Tuesday, January 11, 2011

भोजपुरी लोकगायक बालेश्वर यादव नहीं रहे !

* निक लागे तिकुलिया गोरखपुर के
* मनुआ मरदुआ सीमा पे सोये , मौगा मरद ससुरारी मे.
* कजरा काहें न देहलू

                   अगर  आपो लोगन में से केहू ई गाना के ऊपर मस्ती से झुमल होखे या ई गाना कै शौक़ीन रहल होये तै अब ई आवाज अब कबहू न सुनाई देई. काहें से की ई मशहूर गाना  कै  गवैया बालेश्वर यादव जी अब ई दुनिया से जा चुकल बटे. 
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                     बीते रविवार  ०९  जनवरी २०११ को इन्होने लखनऊ  के श्यामा प्रसाद  मुखर्जी अस्पताल में आखिरी साँस ली , जहाँ  ये कुछ समय से इलाज के लिये भर्ती थे. सन १९४२ में आजमगढ़ - मऊ क्षेत्र के मधुबन  कस्बे के पास चरईपार गाँव में जन्मे, बालेश्वर यादव भोजपुरी  के मशहूर बिरहा और लोकगायक थे.
                 अई...रई... रई...रई... रे  , के विशेष टोन से गीतों को शुरू करने वाले बालेश्वर ने अपने बिरहा और लोकगीतों के माध्यम से यू. पी.- बिहार समेत पूरे  भोजपुरिया समाज के दिलों पर वर्षों तक राज किया. वे जन जन के ये सही अर्थों में गायक थे. इनके गीत " निक लागे तिकुलिया गोरखपुर के " ने एक समय पुरे पूर्वांचल में काफी धूम मचाई थी.जन जन  में अपनी गायकी का लोहा मनवाने वाले इस गायक पर मार्कंडेय जी  और कल्पनाथ राय जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञों की नज़र पड़ी तो तो यह गायक गाँव- गाँव की गलियों से निकलकर  शहरों में धूम मचाने लगा और कल्पनाथ राय ने  अपने राजनितिक मंचों से  लोकगीत गवाकर इन्हें  खूब सोहरत दिलवाई. बालेश्वर यादव २००४  में देवरिया के पडरौना लोकसभा सीट से कांग्रेस  पार्टी के टिकट पर जीतकर लोकसभा में भी पहुंचे.
                इनके गाये गानों पर नयी पीढ़ी के गायक गाते हुए आज मुंबई में हीरो बन प्रसिद्धि पा  गये  , मगर ये लोकगायक इन सबसे दूर एक आम आदमी का जीवन जीता रहा. ये आम लोंगों के  गायक थे और उनके मन में बसे थे. अभी हाल में ही आजमगढ़ के रामाशीष बागी ने महुआ चैनल के सुर संग्राम में इनके गाये गीतों पर धूम मचा दी थी. 
                भोजपुरी के उत्थान और प्रचार  - प्रसार  में इनका महत्वपूर्ण  योगदान  है  . इनके गीत न केवल  अपने देश  में ही प्रसिद्ध  हुए बल्कि जहाँ भी भोजपुरिया माटी  के लो  जाकर  बस  गए , वहाँ   भी इन्हें गाने  के लिये बुलाया  जाता  रहा. इन्होने अपने भोजपुरी गीतों का डंका सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, मारीशस, फिजी, हौलैंड इत्यादि देशो में भी बजाया  . सन १९९५ में बालेश्वर यादव को उत्तर प्रदेश की सरकार ने  लोक-संगीत में अतुलनीय योगदान हेतु ' यश भारती सम्मान 'से सम्मानित किया था. 


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Friday, January 7, 2011

नये दशक का नया भारत ( भाग- १) : कैसे दूर हो बेरोजगारी ?


            विकसित राष्ट्र कि तरफ कदम बढ़ाते सदी के इस दूसरे दसक में कैसा हो नया भारत ? इस रास्ते में रोड़ा बनी समस्याएं कैसे दूर हो ? आज हर भारतीय के मन में एक विकसित  भारत का सपना तैर रहा है . परन्तु राष्ट्र  के सम्मुख अनेकों समस्याएं इस रस्ते की रूकावट बनी खड़ी है. " नये दसक का नया भारत " नामक श्रृंखला  के माध्यम से मैंने कुछ कोशिश की है. आपका सुझाव और मार्गदर्शन कि जरूरत है..... 

 भाग- १: कैसे दूर हो बेरोजगारी ? 
                   देश के सामने आज बेरोजगारी एक बड़ी समस्या के रूप में खड़ी है. बेरोजगारी के कारण लाखों नवयुवक आज दिशाहीन हो गए है. पेट कि ज्वाला शांत करने के लिये बहुत से चोरी , डकैती जैसे  समाज विरोधी  काम करने लगे  है. पैसों का लालच देकर दुश्मन देश भी उन्हें अपने ही देश के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है. बहुत से नवयुवक आत्महत्या कर लेते है. इस बेरोजगारी ने व्यक्तिगत , पारिवारिक और सामाजिक विघटन को बढावा दिया है और इस तरह देश के प्रगति में बहुत नौजवान अपना हाथ नहीं बटा पा रहे. 
                 मेरे ख्याल से इस बेरोजगारी से निज़ात पाने के लिये अगर हमारी सरकारें कुछ ध्यान  इन बातों पर दे तो कुछ हद तक स्थिति सुधार सकती है-------- 
              लघु उद्योंगों को प्रोत्साहन  की आज सख्त जरूरत है. आज बेरोजगार युवकों को इन उद्योगों  से अवगत कराकर प्रोत्साहित करना चाहिए तथा इसके लिये सरकार को आवश्यक संसाधन भी मुहैया करना जरुरी है.
              रोजगार सम्बन्धी जानकारी का  सहज उपलब्ध होना आवश्यक है. हर जिले में रोजगार आफिस है मगर उसका  काम सिर्फ बेरोजगारों का रजिस्ट्रेशन  करने तक ही  ज्यादा सीमित है. कुल ले देकर पुरे देश में एक रोजगार समाचार ही मुख्य माध्यम है. अगर किसी की नज़र पड़ी तो ठीक वरना बाद में. अतः रोजगार सम्बन्धी जानकारी को विस्तृत करना अति आवश्यक है. हालंकि,  इंटरनेट और अन्य मीडिया माध्यमों के माध्यम से भी कुछ रोजगार सम्बन्धी सूचनाएं निकलती है मगर इसमें विस्तार लाना अति आवश्यक है. क्योंकि  ज्यादातर लोग रोजगार समाचार पर ही आश्रित रहते है.
                लार्ड मैकाले की वर्षों पुरानी शिक्षा - प्रणाली में कई खामियां  है. खुद उन्होंने ही  इसकी रुपरेखा इस आधार पर  बनाई थी कि इससे शिक्षा प्राप्त करके युवक उनके अंग्रेजी राज में सिर्फ उनके लिये क्लर्क और बाबू  से ज्यादा न बन सके. ये उनकी सोंच थी मगर हम आज भी उसी शिक्षा  प्रणाली पर बैल गाड़ी की तरह दुनिया के सामने चल रहे है. 
               व्यवसायिक शिक्षा प्रणाली को बढावा देना अतिआवश्यक  है.  ताकि इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करके नवयुवक अपने स्वयं  के व्यवसाय  आरम्भ कर सके तथा उनकी निर्भरता सरकारी कार्यालयों पर कम हो सके. क्योंकि सरकारी दफ्तरों मे भी सीमित संख्या रहती है और इस तरह अनेकों नवयुवकों का बेरोजगार रह जाना स्वाभाविक है. 
              व्यवसाय शुरू करने के लिये सरकारी ऋण की व्यवस्था आसान शर्तों पर तथा  सर्व सुलभ होनी चाहिए. ताकि धनाभाव के कारण नवयुवक अपना व्यवसाय स्थापित करने से वंचित न रह जाये. पढाई  के लिये ऋण तो मिल जाता है मगर रोजगार न मिलने पर यही ऋण उनके लिये काल  का ग्रास बन जाता है और इसे चुकाने के लिये नवयुवक दूसरे रास्ते देखने लगते है या आत्महत्या जैसे विकल्प चुन लेते है. अतः इन ऋणों से बेरोजगार कम से कम अपना खुद का व्यवसाय तो शुरू कर सकते हैं . 
               कुकुरमुत्ते की तरह हर गली में उग आये शिक्षण संस्थानों पर लगाम अति आवश्यक है. ये एम.बी.ए , एम.सी.ए , मेडिकल और इन्जीनियरिंग की डिग्री बिना उन्हें सही से योग्य किये पैसे के खातिर बस बांटते जा रहे है. इससे बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि  तो हो ही रही है और उन्हें सही ज्ञान नहीं मिल पा रहा.  इन  संस्थानों से डिग्री लेकर ये सिर्फ घुमते  रह जाते है और इन्हें नौकरी के काबिल नहीं समझा जाता. 
               शारीरिक श्रम की तरफ नवयुवकों को प्रोत्साहित करना अति आवश्यक है. हाथ में ऊँची डिग्री लेकर नवयुवक शारीरिक श्रम नहीं करना चाहते तथा इन्हें हीन भावना से देखते है. इस दृष्टीकोण   के कारण वे उन सभी कामों की तरफ से मुख मोड़ लेते  है जो शारीरिक श्रम से जुड़े होते है. इससे भी बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि  होती है, क्योंकि सरकारी नौकरियां  सीमित होती है और सबको तो मिलना मुश्किल है. अतः आवश्यकता    है कुछ न कुछ वैकल्पिक व्यवसाय करने की. 
आप लोंगों के कुछ सुझाव मै यहाँ जोड़ना चाहूँगा जैसे की -------

@ मो सम कौन वाले संजय जी का सैनिक शिक्षा का  सुझाव बहुत ही काबिले तारीफ  है. वर्षों पहले नाना पाटेकर ने जो सपना ' प्रहार ' जैसी सार्थक  फिल्म के साथ देखा था वो हमारी सरकारों ने दिलचस्पी नहीं ली और इसे  सच नहीं होने दिया . एक आदर्श है ईजराईल  का हमारे सामने,  जहाँ का हर नागरिक , एक नागरिक बाद में पहले वह देश का सैनिक है वो भी ट्रेनिंग के साथ.  Manoj kumar ji,  का  सुझाव , ये ऐसी बुनियादी समस्याएँ है, जिनका निराकरण हम केवल सरकार के मोहताज रहकर नहीं कर सकते. बेरोजगारी एवं गरीबी जैसी समस्या से निजात पाने के लिए कोई शार्टकट नहीं हो सकता, इसके लिए स्थायी रूप से ठोस और दीर्घकालीन योजनाओ पर अमल की जरुरत है. हम सबको अपनी सोच व कार्यशैली समय के साथ, समय के अनुकूल लेकर चलनी होगी.  दीपा गुप्ता जी , जिनका खुद का एक पब्लिक एडमिनिस्ट्रेटर के रूप में  रोजगार आफिस में काम करने का अनुभव  है,  ने एक बहुत ही अच्छा अनुभव शेयर किया कि रोगगार - मेलों मे ज्यादातर लोग अपने आस पास हो रोजगार खोजना चाहते है . अतः. इसके लिये क्षेत्रीय  उद्योगों को बढावा दिया जाय तो बहुत हद तक समस्या कम हो सकती है मगर इसके लिये भी छोटे स्तर पर ही सही मगर सरकारी मदद जरुरी है  .
 ज्ञानचंद मर्मज्ञ जी का सुझाव है की देश के नौजवान एक बार स्वावलंबी हो गए तो बहुत सारी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जायेंगी और देश विकास के रास्ते पर बड़ी तेजी से अग्रसर हो सकेगा ! सुशील बकलीबस  जी का  कहना है कि  सरकार तो शुरु से घडियाली आंसू और दिखावी उपचार से आगे न कुछ कर पाई है और न ही शायद बहुसंख्यक सामान्यजन के लिये कुछ कर पावेगी । उपचार एक ही है और वह है शिक्षित युवा को सरकार पर निर्भर होने की बजाय अपनी व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार शारीरिक श्रम के द्वारा अपनी राह स्वयं बना ले.अमित जी के दो   सुझाव भी   काबिलेतारीफ है. एक जनसंख्या नियन्त्रण, दूसरा शत-प्रतिशत लोगों का शिक्षित होना, और दोनो के लिये सरकार से ज्यादा लोगों को इच्छा शक्ति दिखानी होगी .\अलोक  खरे जी का कहना है कि  मूल समस्या भ्रष्टाचार है!योजनाये कितनी भी बना लो, जब तक इमानदारी नही आएगी, हमारे अफसरों और नेताओं में तब तक सब बेकार है!हरीश भट्ट जी  का इस सम्बन्ध में कहना है की  भ्रष्ट कार्यप्रणाली का का खात्मा जरूरी है जो अपने निहित स्वार्थों के लिए इस समस्या को जीवंत रखे आ रहे हैं .
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इस श्रृंखला की दूसरी कड़ी  " नये दसक का नया भारत ( भाग- २ ) : गरीबी कैसे मिटे ? " में आप सबके विचार और सुझाव आमंत्रित है ,  जो आप मुझे इ- मेल  ( upen1100@yahoo.com ) से भेजने का कष्ट करे , जिन्हें आपके नाम के साथ इस अगली पोस्ट में उद्धरित किया जायेगा. इस पोस्ट में रह गयी कमियों से भी कृपया अवगत करने का कष्ट करे ताकि अगली कड़ी को और अच्छा बनाया जा सके.
 

Sunday, January 2, 2011

बचपन की तस्वीर

My son's Photo

सुबह से  शाम तक की 
व्यस्त भाग दौड़ 
बदल डालती है चेहरे की रंगत 
बोझिल मन थोड़ा सा भी 
अगर  पाता है फुरसत
तो घेर लेते है अनेकों  ख्यालात
ऐसे में जब कभी भी 
दिवार पर टंगी 
बचपन के तस्वीर की तरफ
जाती है  नज़र 
तो बरबस ही मन  खिंच  जाता है 
भोली भाली चिंतामुक्त 
हँसती तस्वीर की तरफ
और न चाहते हुए भी
फूट पड़ती है हंसी  
जिंदगी घूम फिर  कर
एक ही बिंदु पर केन्द्रित 
होती रहती है
कितना प्यारा था बचपना 
आने लगते है याद 
बचपन के पुराने दिन
और अन्दर ही अन्दर
यह जख्म उठता   है
कि क्यों  नहीं हम
बचपना  वापस पा लेते ..