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Wednesday, June 9, 2010

कातिल

जबसे कातिलों के शहर में आकर हम रहने लगे है
बेगुनाह होते हुए भी लोग हमें कातिल समझने लगे है
एक अंजाना सा भय है एक अनजानी सी दहशत
ऑंखें चुराकर लोग हमसे अब निकलने लगे है
नहीं जलती है शमां नहीं होती है रोशनी मेरी महफ़िल में
कदम -दर- कदम पैरों के निशान मिटने लगे हैं
आने लगी हर सहर बनकर मुस्किल एक डगर
घर का रुख देख मेरे लोगों के कदम रुकने लगे हैं
" उपेन्द्र " नजरें नहीं मिलती हर शक्श अब सहमा हुआ है
महफ़िलें हो गयी सुनी लोग महफ़िलों उठने लगे हैं ।।

गुस्सा

उसके पति उससे कह कर सोये थे कि सुबह - सुबह थोडा जल्दी जगा देना कल जल्दी ऑफिस जाना है । परन्तु सुबह उसकी भी नींद देर से खुली।
" रात भर क्या खाक छान रही थी जो सुबह जगा नहीं सकी " पतिदेव गुस्से में चीखे।
" रात में थोड़ा अच्छा सा सपना आ गया था ।"
" किस मजनूं के सपने देख रही थी , जरा में भी तो सुनूं। पति का गुस्सा बढता ही जा रहा था ।
" आज आप गुस्सा क्यों हो रहें हैं। सपने में हम तथा आप एक सुन्दर झील के किनारे.......।"
पति का गुस्सा कम होने लगा था तथा पत्नी ने राहत की सांस ली।

(प्रकाशित ०७ अप्रैल १९९९ हिन्दी देनीक " आज ")

राज

वो पूछते हैं मुझसे
मेरी गजलों में
छिपे दर्द का राज
उन्हें ये नहीं मालुम
उन्हीं का था
दिया हुआ जख्म
जो इस दिल में
रोज होता रहा इकठ्ठा
वही एक दिन बनकर
दो बूंद आंसू
कागज पर गिर पडा
फिर गजल बन गई ।।

( प्रकाशित 9 नव. 1997 जलते द्वीप)

दर्द

मूसल को
भले ही न हुआ हो
ओखली में पडे
सिर के दर्द का एहसास
मगर सिर भला क्या
भूल पायेगा कभी
मूसल की मार को ।।

Tuesday, June 8, 2010

अफसोस

अफसोस
सरकार बनने के
चन्द दिनों बाद ही
समर्थन देने वाली पार्टी ने
समर्थन ले लिया वापस
पूरे मंत्रिमण्डल में
रोष था
मंत्री जी को एक भी घोटाला
न कर पाने का
अफसोस था ।।

( प्रकाशित___26 मार्च 1997 पंजाब केशरी में )