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Wednesday, June 9, 2010

कातिल

जबसे कातिलों के शहर में आकर हम रहने लगे है
बेगुनाह होते हुए भी लोग हमें कातिल समझने लगे है
एक अंजाना सा भय है एक अनजानी सी दहशत
ऑंखें चुराकर लोग हमसे अब निकलने लगे है
नहीं जलती है शमां नहीं होती है रोशनी मेरी महफ़िल में
कदम -दर- कदम पैरों के निशान मिटने लगे हैं
आने लगी हर सहर बनकर मुस्किल एक डगर
घर का रुख देख मेरे लोगों के कदम रुकने लगे हैं
" उपेन्द्र " नजरें नहीं मिलती हर शक्श अब सहमा हुआ है
महफ़िलें हो गयी सुनी लोग महफ़िलों उठने लगे हैं ।।

4 comments:

  1. aap ke gazal ka katilana andaj bahut badhia hai.
    aap ko subh kamanaye. likhate rahiye...........

    Namdev sable
    Mumbai(Tata power)

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  2. bahut hi badiya sir
    do check out
    www.simplypoet.com
    World's first multi- lingual poetry portal!!

    do login and post...takki sabhi ko aapki khoobsurat karigari padne
    ka mauka miley ..aur logon ko pata chalee ke aapke jaise kavi abhi tak blogging karte hain!!

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  3. अच्छी गज़ल लिखी है

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  4. ye ajeeb shahar hai ....
    kisi ne kaha hai-
    "jiske haathon me de aaya tha main phool kabhi,
    usi ke haath ka pathar meri talaash me hai....

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