जबसे कातिलों के शहर में आकर हम रहने लगे है
बेगुनाह होते हुए भी लोग हमें कातिल समझने लगे है
एक अंजाना सा भय है एक अनजानी सी दहशत
ऑंखें चुराकर लोग हमसे अब निकलने लगे है
नहीं जलती है शमां नहीं होती है रोशनी मेरी महफ़िल में
कदम -दर- कदम पैरों के निशान मिटने लगे हैं
आने लगी हर सहर बनकर मुस्किल एक डगर
घर का रुख देख मेरे लोगों के कदम रुकने लगे हैं
" उपेन्द्र " नजरें नहीं मिलती हर शक्श अब सहमा हुआ है
महफ़िलें हो गयी सुनी लोग महफ़िलों उठने लगे हैं ।।
aap ke gazal ka katilana andaj bahut badhia hai.
ReplyDeleteaap ko subh kamanaye. likhate rahiye...........
Namdev sable
Mumbai(Tata power)
bahut hi badiya sir
ReplyDeletedo check out
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do login and post...takki sabhi ko aapki khoobsurat karigari padne
ka mauka miley ..aur logon ko pata chalee ke aapke jaise kavi abhi tak blogging karte hain!!
अच्छी गज़ल लिखी है
ReplyDeleteye ajeeb shahar hai ....
ReplyDeletekisi ne kaha hai-
"jiske haathon me de aaya tha main phool kabhi,
usi ke haath ka pathar meri talaash me hai....