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Saturday, August 28, 2010

जिन्दगी

एक

जिन्दगी
दो वक्त की
भूख तो नहीं
कि चलो आज
पानी पीकर सो रहेंगें ।।

दो

जिन्दगी
ढूढने निकले थे
हम लेकर चिराग
हर कदम के नीचे
अपनी ही जिन्दगी
मसलते गये।।

तीन

जिन्दगी की
कल एक मोड पर
मुलाकात हुयी थी मुझसे
एक दूसरे के हालात पर
तरस खाकर
वो अपने रास्ते
हम अपने रास्ते
मुड चलें

चार

जिन्दगी जीना
मुशकिल तो था
मगर तेरी याद ने इस कदर
इसे मुशकिल बना दिया
कि हम चाहकर भी
इसे जी नहीं सके थे
अपनी तरह से ।।

पांच

जिन्दगी से मेरे
वे हमेशा ही
खेलते रहें
मै समझता रहा
वे खेल मुझसे
खेल की तरह
खेल रहें हैं ।।

छ:

मैं चूल्हा था
एवं मेरे उपर तवा
जिन्दगी बनाती रही
मेरे लिए रोटियां
मै हर लौ के साथ
खुद ही उसे जलाता गया ।।

( प्रकाशित सित, २००९ )

11 comments:

  1. कविता अच्छी लगी| मेरे ब्लॉग पर आने का आभार|

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  2. ओह ...हर क्षणिका गज़ब की है ....बहुत सुन्दर ...

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  3. जिन्दगी की हर क्षणिका सुंदर ।

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  4. जिन्दगी की कहानी
    शब्दों की जुबांनी....
    क्या बात कह डाली...
    वाह! वाह!

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  5. Jindagi ke vividh rangon ko nape-tule shabdon mein bahut gahraayee se ukera hai aapne..
    bahut achha laga aapke blog par aakar..
    haardik shubhkamnayne

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  6. sundar prastuti,

    कृपया अपने बहुमूल्य सुझावों और टिप्पणियों से हमारा मार्गदर्शन करें:-
    अकेला या अकेली

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  7. जिन्दगी
    ढूढने निकले थे
    हम लेकर चिराग
    हर कदम के नीचे
    अपनी ही जिन्दगी
    मसलते गये।।
    उपेन्द्र जी .................. बहुत खुब

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  8. उपद्र जी, अच्छी कविता पढ़वाने के लिए धन्यावाद


    मै हर लौ के साथ
    खुद ही उसे जलाता गया ।।

    रोटी के लिए ही रह गए हैं सभी सितम.

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  9. बहुत बढ़िया...
    ज़िन्दगी की सभी परिभाषाएं बढ़िया..

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  10. aap ke madhyam se maine jo paya wah sabdo mai bayan karna muskil hai

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