( चित्र गूगल साभार )
अबोध शिशु की आँखों मे स्वप्निल संसार जन्म लेने लगा था. मुख मे दन्त क्या निकले की मानो पर निकल आये हों. वह उड़ना चाहता था, दुनिया देखना था. बच्चा अंजान था , उसकी इस कोशिश ने पहली बार शरारत की. उसने चपलता के साथ अपने दन्त माँ के स्तन मे गड़ा दिए.
माँ को पहले ही आशंका थी की स्तनपान से स्तन का आकर ख़राब हो सकता है. अब यह आशंका प्रबल हो गयी. माँ ने बच्चे के स्तनपान की आदत को छुड़ाने के लिए स्तन पर हरी मिर्च का टुकड़ा रगड़ दिया.
बच्चे ने जैसे ही स्तनपान करना चाहा वैसे ही उसका मन छनछना गया. मुख पूरी तरह से कसैला हो उठा. अबोध शिशु का पहली बार इस दुनिया की कडुआहट से साक्षात्कार हुआ.
.
अबोध शिशु की आँखों मे स्वप्निल संसार जन्म लेने लगा था. मुख मे दन्त क्या निकले की मानो पर निकल आये हों. वह उड़ना चाहता था, दुनिया देखना था. बच्चा अंजान था , उसकी इस कोशिश ने पहली बार शरारत की. उसने चपलता के साथ अपने दन्त माँ के स्तन मे गड़ा दिए.
माँ को पहले ही आशंका थी की स्तनपान से स्तन का आकर ख़राब हो सकता है. अब यह आशंका प्रबल हो गयी. माँ ने बच्चे के स्तनपान की आदत को छुड़ाने के लिए स्तन पर हरी मिर्च का टुकड़ा रगड़ दिया.
बच्चे ने जैसे ही स्तनपान करना चाहा वैसे ही उसका मन छनछना गया. मुख पूरी तरह से कसैला हो उठा. अबोध शिशु का पहली बार इस दुनिया की कडुआहट से साक्षात्कार हुआ.
.
bahut hi krure shakshatkar, aur apaki sukhshm drishti ki bhi salaam
ReplyDeleteबहुत गहरी सोच|
ReplyDeletebhut hi gahri soch ke saath likha hai upendra ji.......
ReplyDeletereally very nice Upendra ji............bhut hi gehrayi me ja kar rachi gayi rachna ......really wonderfull......
ReplyDeleteभाई, बहुत ही दूर तक पहुंचे.
ReplyDeleteउम्दा, आजकल के समाज पर बहुत जोर से थप्पड़ मारा है आपने.
जिन्दगी के एक और सच्चाई
ReplyDeleteआपके लेखनी द्वारा बाहर आई। बधाई
samaj ko aaina dikhati hui sarthak rachna k liye badhai.................
ReplyDeleteभाई साहेब अद्भुद लघुकथा है. मेरे मन में इस विषय पर बहुत दिनों से कविता लिखना चाह रहा था लेकिन लिख नहीं पाया था.. आपकी लघुकथा को पढ़कर अपना सा लगा.. प्रभावशाली ! नवीनतम अनछुआ विम्ब...
ReplyDeleteसच्चाई को उजागर करती मार्मिक लघुकथा...अति उत्तम.
ReplyDeleteupendra ji sahi kaha logon ne bahut hi gahraai bhari hai rachna .......wakai me sach hai use ubhara hai aapne lekhni me .......badhai
ReplyDeleteउपेन्द्र जी पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है ...
ReplyDeleteक्या एक माँ का ह्रदय इतना पाषाण हो सकता है .....?
बहरहाल आपकी लघुकथा छू गयी .....!!
माफ करें उपेन्द्र भाई,मैं भी हीर जी की बात से सहमत हूं। मां का हृदय इतना कठोर नहीं होता है। जिसका होता है फिर वह मां नहीं है। लघुकथा में यह स्प्ाष्ट नहीं है कि आप दिखाना क्या चाहते हैं,दुनिया की कड़वाहट या आधुनिक स्त्री का चरित्र। पहले यह फैसला करिए।
ReplyDeleteमैंने आपकी दूसरी लघुकथा अपरोध बोध भी पढ़ी। उसमें भी यह स्पष्ट नहीं है कि आप बेटे का झूठा दंभ दिखाना चाहते हैं या बाप की विवशता।
@ उत्साही जी
ReplyDeleteमेरे ब्लाग पर आकर अपनी कीमती राय देने के लिये आपका हार्दिक आभार.
इस लघुकथा में जहां न सिर्फ दुनिया की कड़वाहट व आधुनिक स्त्री का चरित्र है वहीं अबोध शिशु का इस दुनिया को भली भांती समझने का पहला अनुभव भी है.
दूसरी लघुकथा "अपरोध बोध" में बेटे का झूठा दंभ नहीं बल्कि आधुनिकता से उपजी उसकी मजबूरी व वहीं उसके बाप की विवशता भी है, उस पर गांव में रहते हुये शहरी मानसकिता के इस रूप से अनभिज्ञ रह जाने की.
तीन पंक्त्ति में जहां कोई कहानी, वह भी लधु पटल के साथ तीन बिंदु पर बिल्कुल स्पष्ट है व स्पष्ट संदेश दे रही हो वहां लधु-कहानी का कथानक मेरे हिसाब से बिल्कुल कमजोर नहीं। लघुकथा की पहली व सबसे अनिवार्य शर्त, कम में शब्दों में ज्यादा कह जाना.
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete@ हीर जी
ReplyDeleteहां,हर कोई स्त्री इस तरह की नहीं होती मगर अपवाद तो हर जगह है. मैंनें एक सच्ची घटना लिखी है.
लघुकथा छू गयी.... इसके लिये आपक हार्दिक आभार.
@ रजनी जी
@ आकांक्षा जी
@ अरूण जी
@ अमरेंद्र जी
@ अमित जी
@ दीपक जी
@ आरती जी
@ शताक्क्षी जी
@ जोशी जी
@ आलोक जी
आप लोंगों का ब्लाग पर पधार कर कीमती राय देने के लिये आभार ।