महात्मा गाँधी और राजीव गाँधी ने पंचायती राज व्यवस्था के जो सपने देखे थे क्या वो आज के परिपेक्ष्य मे सफल हो रहे है ? अभी हाल मे ही हुए उत्तर प्रदेश मे पंचायती राज चुनाव को देखकर तो हाँ बिलकुल नहीं कहा जा सकता. इतने छोटे स्तर के चुनाव मे भी प्रत्याशी मानो रुपये- पैसों की बारिश कर रहा हो. चुनाव के पहले वाली रात प्रत्याशी के एजेंट गावों मे घूमकर पाँच- पाँच सौ के नोट तथा साड़ी खुलेआम बाँट रहे थे. दारू के पौवे छलक रहे थे और मुर्गे की दावत उड़ाई जा रही थी.
आज मतदाता की तुलना एक मुर्गे से की जाय तो बुरा नहीं होगा. जब चाहो खरीद लो जब चाहो बेंच दो. चाहो तो पकाकर खा जाओ या किसी को परोस दो. चाहे खुद टांग तोड़ दो या किसी की तुड़वा दो .बस सब कमाल पैसे का है. जिसकी अंटी मे पैसा जितना उसके हिस्से में उतने ही मुर्गे .
गाँवो मे अशिक्षा , बेरोजगारी, गरीबी जैसी कई समस्याए है. मुफ्त मे अगर इस गरीब तबके को दारू, साड़ी और कुछ नोटों का जुगाड़ हो जाय तो ये इन्हें क्या कष्ट है. इन्ही मजबूरियों का फायदा ये प्रत्याशी उठा लेते है. तो ऐसे मे इन चुनाओं का क्या महत्व रह जाता है. इस तरह पंचायती राज बस एक मजाक बन गया है. कुछ सालों पहले तक पंचायत चुनाव मे इतने हंगामे नहीं हुआ करते थे. जबसे ग्राम पंचायतो मे पैसे आना शुरू हुए और इसमें पैसों की बन्दर बाँट होने लगी तबसे ये चुनाव काफी अहम होने लगे. अब ये चुनाव तो हिंसक भी होने लगे है.
अब लाखो रुपये खर्च करके जो व्यक्ति ग्राम प्रधान बन रहा है वो क्या जब रुपये हाथ मे आयेगे तो ग्राम का विकास करेगा या फिर अपने खर्च हुए रुपये को वसूलेगा और फिर इसके बाद अगले चुनाव के लिए जुगाड़ करेगा. ये सब देख सुन कर मन बहुत द्रवित हो जाता है. जब नीचे स्तर पर इतने बड़े घोटाले है तो देश किस तरह से प्रगति कर पायेगा. कब हम जागृत होंगे अपने कर्तव्यों के प्रति ?
इन चुनाओं मे बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई. चुनाव बाद भी हिंसाओं का दौर रुक नहीं रहा. अभी एक खबर बहराइच से आयी है जहाँ एक हारे हुए प्रत्याशी ने अपने ही एक अन्य हारे हुए प्रत्याशी के हाथ सिर्फ इस लिए काट डाले की अगर वो उनकी बात मान कर अपना नाम वापस ले लेता तो वह जीत जाता. क्या ये संवेदनहीनता की हद नहीं है.
आज ही खबर मिली की हमारे भी एक खासम खाश ग्राम प्रधान बन चुके है. उन्हें बधाई देने के बाद कुछ सोंचने बैठे तो अनायास ही ये कुछ पंक्तिया मन मे आ गयी.-----
1.
दारू के पौवे का शोर जहाँ
मुर्गे की टांगो का जोर जहाँ
हरी -हरी नोटों पर बिकते वोट जहाँ
और इमानदार बन जाता कमजोर जहाँ
जहाँ होती रुपये - पैसो की बारिश
और होता हर कोई मालामाल
देखा नहीं जाता
लोकतंत्र तेरा अब ये हाल.
2 .
गाँधी तेरे लोकतंत्र मे
कैसा ये अजब तमाशा है
हर पाँच साल बाद
बजने वाला ये कैसा बाजा है
तुम्हारे लिए तो ये प्रजा का तंत्र था
इनके लिए ये
रेवड़ी और बताशा है.
खुल्लम खुल्ला बंदर बाट मची है
ये समाजवाद की परिभाषा है.
3.
अब पाँच साल तक नंगे रह लेना
फिर आकर ये साड़ी बाँटेगे
छलकेगें दारू के जाम
तब तक प्यासे रह लेना
नोटों की अगली बारिश तक
बस कंकड़ - पत्थर गिनते रहना
फिर आकर ये करेंगे सौदा
तब तक मर- मर कर जीते रहना
/ अन्य
bahut sarthak lekh wa kavita
ReplyDeleteab mere khayall se ye democracy nhi he,
ye hain hoppcracy (hip hop)its a kind of dance,
jisme koi specific mudra nhi hoti, bas saamne wale ko impress karna hota he, aajkal chunaav kuch isitarha ho rahe hain
बहुत सटीक... हर पंक्ति हकीकत बयां कर रही है.....
ReplyDeletesach likha hai...
ReplyDeleteदरअसल इस स्थिति के लिए जिम्मेवार हैं हमारे देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पद पर इस समय बैठे वे लोग जो अपनी तिकरम और घोटालेवाज छवि के बाबजूद इस सम्माननीय पद पर बेशर्मी से बैठें हैं ...जबसे प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठी है चारोतरफ अराजकता ,नैतिकपतन और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया है आज हर कोई दुखी है की क्या इन पदों पर बैठकर भी कोई इतना असंवेदनशील हो सकता है ...? लोग भूखे मर रहें हैं उनके पास कोई साधन नहीं है ऐसे में कोई अगर दारू.और साडी के बदले अपने आप को बेच रहा है तो कसूरवार वो नहीं हमारे देश के इन महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्ति हैं जिनकी सोच की वजह से सामाजिक असंतुलन इंसानियत को ख़त्म करने की कगार पर है ...किसी की इंसानियत अकूत काले धन की वजह से ख़त्म हो रही है तो किसी की जीने की गंभीर बुनियादी जरूरतों के अभाव में....शर्मनाक स्थिति है और बेशर्मों की सरकार है....चुनाव तो मात्र औपचारिकता है इन बेशर्म परिस्थियों में ...
ReplyDelete.
ReplyDeleteजबरदस्त कटाक्ष। मुर्गे से तुलना बिलकुल सटीक की है, जब चाहे, बेचो, जब चाहे खरीदो।
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बिलकुल सही तस्वीर है आज की राजनीति की। त्रास्दी है हमारी कि चुप चाप तमाशा देखने के कुछ नही कर सकते। अच्छी रचना के लिये बधाई।
ReplyDeleteआपने बहुत सही चित्रण किया है. छोटे लेवल के चुनावों का ये हाल है - बड़े में तो भगवान् बचाए.......
ReplyDeleteएक बात और - शायद आपने नोटिस नहीं की या फिर यहाँ नहीं लिखी -
प्रधानी चुनावों में मज़बूत होती दुश्मनी........
कई घर तो चुनाव के समय गाँव से चले जाते हैं........
किसको वोट दें - और किसको नहीं दें.
बहुत ही तीखा मगर सार्थक व्यंग्य किया है आपने। बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteक्या बात है ! बहुत खूब
ReplyDeleteसार्थक और सृजन से मिल कर खुशी हुई
ReplyDeleteआलेख प्रभाव शाली है
वाह
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एक नज़र : ताज़ा-पोस्ट पर
मानो या न मानो
पंकज जी को सुरीली शुभ कामनाएं : अर्चना जी के सहयोग से
पा.ना. सुब्रमणियन के मल्हार पर प्रकृति प्रेम की झलक
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लोग नहीं वोट हैं यहां. इसलिये यही तो होगा.
ReplyDelete@ जय कुमार जी
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आप ने. मगर अब स्थिति बदलनी चाहिए..... अपने विचारों से मार्गदर्शन करने के लिए आभार.
बहुत सच लिखा है आपने ....
ReplyDeletebahut achchha vyang
ReplyDeleteबिल्कुल सही लिखा है आपने। जबसे पचायती राज शुरू हुआ है तब से गांव-गांव में भ्रष्टाचार बहुत तेजी से पैर परार रहा है।
ReplyDeleteजोरदार व्यंग है । पर है तो यथार्थ ही ।
ReplyDeleteतीखे व्यंग्य...अच्छे लगे!
ReplyDeleteआपको दीप-पर्व की अनंत-आत्मीय मंगलकामनाएँ!
इन बातों पे कविता ही लिख दी आपने, लेकिन हर पंक्ति एकदम सच है..
ReplyDeleteSAtik vishleshan...!!
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